The power of thought

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Wednesday, August 15, 2012

स्वतंत्रता दिवस:याद का बोझ

स्वतंत्रता दिवस ! हर वर्ष यह शुभ दिन आता है और हर जिम्मेदार भारतीय की तरह मैं भी सुबह से सन्देश व मिठाइयाँ वितरण एवं प्राप्ति हेतु प्रयास करता हूँ ।पर एक प्रश्न जो पिछले कई वर्षो की तरह इस वर्ष भी मेरे सम्मुख है ,आज मैं आप सबके सामने भी रखता हूँ "क्या स्वाधीनता दिवस सिर्फ खुशियाँ ही लेकर आता है या इसके पीछे कोई अत्यंत ही गूढ़ भाव भी छुपा हुआ है ?"
क्या ये दिन बस ये याद करने को है की हम आज के दिन ही आज़ाद हुए थे या ये हमें यह भी सोचने पर विवश करता है की हम गुलाम ही क्यूँ कर हुए थे? अगर यह सिर्फ आज़ादी का जश्न भर ही है तो क्या ये वाकई में उचित है ?
नहीं , मैं इस उत्सव के खिलाफ बिलकुल भी नहीं पर मैं यह जानना चाहता हूँ की जिस तरह से हम इस पर्व को सम्पन्न करते हैं क्या वो ही उचित है या आज गुलामी से मुक्ति के इतने वर्षो बाद शायद हम यह पर्व किसी और तरीके से मनाना चाहे ।
इस वर्ष फिर से बहस होगी"यह आज़ादी हमें बिना खड्ग-ढाल के मिली या नहीं? ""भगत सिंह या गाँधी ?" पर यह बहस शायद ही कहीं हो "आखिर यह राष्ट्र दासता की जंजीरों में जकड़ा ही क्यूँ ? ""क्यूँ हम पर एक के बाद एक विदेशी हुकूमत थोपी जाती रही और हम  उसे स्वीकारते रहे ?""जो हमें 1857 में ही मिल जाना चाहिए था उसके लिए 1947 तक 90 वर्षों का सफ़र क्यूँ तय किया गया "
मैं अपने हर भारतीय मित्र को शुभ-कामनाएं तो दे देता हूँ पर विदेशी मित्रो को इस दिन की महत्ता बताने में न जाने क्यों एक संकोच सा होता है ? शायद इसलिए क्योंकी उन्हें फिर यह भी याद दिलाना पड़ता है की हाँ कभी जगद्गुरु रहे इस राष्ट्र को छोटे से टापू पर रहने वाले मुट्ठी भर लोगो ने अपने कदमो तले रौंद रखा था ।
शायद हम इस संकोच से कभी  उबर न सके पर उन कारणों पर सार्थक विचार कर अपने वंशजों को कम से कम इस संकोच के भार की कुछ पोटलियाँ हलकी कर सकते है ।

                                                             जय हिंद 

                                                           वन्दे-मातरम 

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